अन्तर्यामी

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अन्तर्यामी श्री चंद्र मोहन जी महाराज

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम्।
बिन्दुनादकलातीतं तस्मै श्रीगुरुवे नमः।।
(चैतन्य शाश्वत, शान्त, आकाश से परे ,माया रहित। बिन्दुनाद और कला से अतीत उन श्री गुरुदेव को नमस्कार है। )
यह वर्ष 1905 की विजय दशमी का ही दिन था जब एक अत्यंत ओजस्वी एवं दिव्य आत्मा जिला करनाल तहसील पानीपत से कुछ दूरी पर स्थित एक छोटे से गांव अलूपुर में श्री पं० देवी राम व श्रीमति चरती देवी के घर उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुई। पूज्य पं० देवी राम जी दृढ़तम आर्य समाजी विचारों के धनी थे जबकि माता जी के सस्कार पौराणिक ढंग के थे। पं० जी आर्य प्रादेशिक प्रतिनिधि सभा के एक योग्य व कुशल उपदेशक थे। पूज्य पिता जी ने बालक का नाम चन्द्रमोहन रखा जो आगे चलकर योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर अन्नंत श्री विभूषित सदगुरुदेव योगिराज श्री चन्द्रमोहन जी महाराज के नाम से विश्व विख्यात हुए।

इनके पूज्य पिता जी नित्य प्रातः काल गांव के साथ लगते एक तालाब में स्नान कर हवन-यज्ञ पूजा पाठ करने के बाद ही घर आते थे और अपने साथ अपने पुत्र को भी ले जाते जो की अभि केवल 2 -3 वर्ष आयु का ही था। वे स्वयं हवन यज्ञ करते और पुत्र को ध्यान में बिठाते थे। बैठे बैठे उन्हें तन्द्रा सी छा जाती तब पिता जी उन्हें उठा देते। इस प्रकार अत्यंत छोटी सी आयु से ही इन्हे ध्यान में बैठने का अभ्यास हो गया था। इन्हे भगवन श्री कृष्ण जी के बाल रूप में दर्शन रहते थे और ये अपनी माता जी को बतलाते कि माँ आज में कृष्ण जी के साथ खेला उनकी पारगला (पगड़ी की तरह ) बहुत सुन्दर था इत्यादि इत्यादि। किन्तु माता जी इसे केवल अपने बेटे का भ्रम मानती।
बाल्यकालीन शिक्षा परीक्षा का प्रबन्ध घर पर ही किया गया। इनके पिता जी इन्हे स्वयं पढ़ाते रहते थे। आठ वर्ष की आयु से पहले पहले अच्छा पाठ्यक्रम समझ में आ गया था। दस वर्ष की आयु तक ग्रामीण स्कूली शिक्षा होती रही। इनके पिता जी की इच्छा इन्हे ज्ञानवान, शुद्ध सच्चरित्र विद्वान बनाने की थी। इसके लिए उपनिषदों की कथाएं , ऋषि मुनियों के आश्रम इत्यादि का वर्णन इत्यादि इन्हे बताते रहते थे और खेल तमाशे, नाच कूद के आयोजनों में बिलकुल नहीं जाने देते थे। उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु इन्हे लाहौर के डी० ए ० वी० कालेज संस्कृत विभाग के अन्तर्गत श्री मद्द्यानन्द ब्रह्म महा विद्यालय में प्रवेश कराया गया जहाँ के प्रधानाचार्य श्री आचार्य विश्वबन्धु जी थे। जो ऊँचे विचारों के तपस्वी व अनुशासनप्रिय व्यक्ति थे। उनकी शिक्षा का श्री गुरुदेव चन्द्रमोहन जी महाराज जी के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। इस विद्यालय में अढ़ाई - तीन वर्ष तक अध्ययन किया उसके पश्चात विद्यालय छोड़ दिया। इनके हृदय में बचपन से ही विश्व नियंता भगवन श्री कृष्ण के साथ विशेष प्रेम था। इसी प्रेमवश में इन्होंने छोटी आयु में ही बिना किसी को बताये श्री बृन्दावन धाम में बृजभूमि के दर्शन किये। वहां कुछ दिन घूम घूम कर भगवन श्री कृष्ण की लीला भूमि में विचरण किया। इसी बीच इनके घर वाले इन्हे ढूंढते ढूंढते श्री बृन्दावन पहुँच गए और इन्हें वापिस घर ले आये। घर में इनका मन नहीं लगता था। ध्यान में बैठने का अभ्यास बचपन से ही था। अतः किसी मंदिर या दूसरे एकान्त शिवालय में बैठकर कई कई दिन तीव्र तपश्चर्या - अनुष्ठान करते थे। ध्यान में इन्हे भगवन श्री कृष्ण श्री शंकर जी के दर्शन बराबर होते रहते थे। अब इन्हे योगी गुरुदेव की इच्छा होने लगी जो इनका योग मार्ग प्रशस्त कर सके। एक दिन इन्होंने स्वपन में देखा कि एक महात्मा कई लोगों को कुएँ का जल पीला रहे हैं म इन्हे देखते ही उन्होंने पानी का डोल (वर्तन ) इनके हाथ में पकड़ा कर कहा कि अब तू इन्हें पानी पीला। इनके हाथ में डोल आते ही वहां कई लोगों की भीड़ लग गयी और ये बिना थके पानी पिलाते रहे। फिर एक दिन इन्होने देखा कि वे महात्मा श्री चन्द्रमोहन जी महाराज को अपने पास बुला रहे हैं किन्तु ये समझ न सके की महात्मा कौन हैं, कहाँ रहते हैं।
अस्तु
अमृतसर में रहते हुए इन्होंने योगी गुरु की खोज करनी प्रारम्भ की। एक दिन किसी ने इन्हें योगीराज श्री मुल्खराज जी महाराज से मिलवाया जिन्होंने इनको योग योगेश्वर प्रभु श्री राम लाल जी महाराज जी का पता बताया जो रेलवे रोड ऋषिकेश आश्रम में वास् कर रहे थे। वहां जाते ही इन्होंने देखा कि ये तो वही महात्मा हैं जिन्होंने स्वप्न में इनको जल पिलाने की आज्ञा दी थी और फिर अपने पास आने को कहा था। अतः प्रसन्नता पूर्वक इन्होंने उनके चरणों में सिरनवा दिया और उनसे योग दीक्षा प्राप्त की। निरन्तर अभ्यास व गुरुदेव की छत्र छाया एवं आशीर्वाद से इनकी ध्यान स्थिति बढ़ने लगी। योग योगेश्वर प्रभु श्री राम लाल जी महाराज ने इन्हे अष्टांग योग सिद्ध कराया जिसका यह प्रभाव हुआ कि इन्हें दूर दर्शन, दूरश्रवण ,आकाश गमन इत्यादि की सिद्धियां प्राप्त हो गई। ऋषिकेश में रहते हुए भी इनके मन में एकान्त जंगलों में चलकर तीव्रतम अनुष्ठान करने की इच्छा बनी रहती थी। बीएस एक दिन चुप चाप मृघ छाला धारण कर बद्रीनारायण जी के मन्दिर के ऊपर शतपथ में जाने हेतु दिन के लगभग 11 बजे आश्रम से निकलने हेतु कदम बढ़ाया ही था कि उसी समय डाकिये ने एक पत्र श्री प्रभुजी का इन्हें पकड़ा दिया जिसमें प्रभु जी ने लिखा था कि हम बस्तियों में बैठे हैं और तुम वनों में जाने की इच्छा कर रहे हो। अपने कदम वापिस खींच लो तुमने अभी जन मानस का बहुत भला करना है। पत्र मिलते ही इन्होंने शतपथ जाने का विचार त्याग दिया दिया और पूर्ववत श्री ऋषिकेश आश्रम की सेवा में जुट गए। इनकी योग स्थिति व योग्यता को देखकर इनको गुरुदेव श्री प्रभु जी ने इन्हें योग की दीक्षा प्रदान करने की आज्ञा दे दी और इन्होने दीक्षा देनी प्रारम्भ कर दी। इनसे दीक्षा प्राप्त करने करने वालों की सँख्या दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। लोगों का सब प्रकार से भला होने लगा व योग मार्ग पर आरूढ़ होने लगे। योग साधन व योग आसान का बृहद प्रचार किया जिनके द्वारा कई असाध्य रोगों से पीड़ित व्यक्ति भी स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत वर्ष ही नहीं अपितु विदेशों में भी इनके कई शिष्य बन गए। एक बार भ्रमण करते करते अपने एक शिष्य के आग्रह पर ये जिला आगरा की तहसील एत्मादपुर के सवाई ग्राम में पहुँचे। यहाँ प्रभु राम लाल जी महाराज के द्वारा निर्मित एक बहुत पुराणी गुफा थी। कालांतर में यह मिट्टी आदि से भर गयी थी। आनंदकन्द श्री चन्द्रमोहन जी महाराज ने ही इस गुफा का पुनरूद्धार किया और इसे सिद्ध गुफा का नाम दिया। यह गुफा आज मनोवाञ्छित इच्छा को पूर्ण करने वाली और कल्याणकारी के कारन आज जगत प्रसिद्ध है। श्री गुरुदेव चंद्रमोहन जी में ऋषिकेश आश्रम व श्री सिद्ध गुफा से बृहद योग प्रचार किया। इसके अतिरिक्त पूरा वर्ष ये भारत वर्ष के विभिन्न स्थानों में भ्रमण करके हजारों लोगों को योग दीक्षा देकर कल्याणकारी मार्गपर उन्हें चलने की प्रेरणा देते रहे। अन्ततः अपने एकांत वास् के दौरान 25 जून 1990 को इन्होने भौतिक शरीर का त्याग कर दिया।