यम क्या है
अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः
अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह यह पांच साधनायें यम कहलाती है, उनमे यम नियमों की साधनाओं की आधार भूत अहिंसा है। इसी सूत्र का अर्थ करते हुए भगवन व्यासदेव अहिंसा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखते है।
१. अहिंसा :-
तत्राहिंसा =सर्वथा सर्वदा सर्वभूताना
मनभिद्रोहः,उतरे च यमनियमास्तन्मूला -
स्तत्सिद्धिपरतया तत्प्रतिपादनाय प्रतिपाद्यन्ते,
तदवदातरूपकरणायैवोपादीयन्ते तथा चोक्त -
"स खल्वयं ब्राह्मणों यथा तथा ब्रतानि
बहूनि समादित्सते तथा तथा प्रमाद कृतेभ्यो
हिंसा निदानेभ्यो निवर्तमानस्तामेवा बदा -
तरूपाम अहिंसा करोति"।
अर्थात अहिंसा के अतिरिक्त शेष यम नियम अहिंसा की पुष्टि के लिए ही हैं। इस विषय प्रकार समझ लेना चाहिए, उदारणार्थ हम सत्य बोलते हैं और सत्य के अर्थ को को स्पष्ट करते हुए भगवन व्यासदेव जी ने निम्नलिखित पंक्तियाँ लिखी है :-
सत्यं = यथार्थे वाङ्गमनसे यथादृष्टं यथानु-
मिते यथा श्रुतं तथा वांगमनश्चेति, परत्र
स्ववोधसङ्क्रान्तये वागुक्ता सा यदि न
लञ्लिचता भ्रान्ता वा प्रतिपति बन्ध्या वा
भवेदिति एषा सर्वभूतोपकारार्थप्रवृता न
भूतोपघाताय यदि चैवमप्यभिधीयमाना
भूतोपघात परैव स्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव
भवेत् ,तेन पुण्याभासेन पुण्यप्रतिरूपेण
कष्टतम्ं प्राप्नुयात ।।
अर्थात अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यवहार होना अर्थात जैसा देखा हो, जैसा अनुमान किया हो और जैसा सुना हो, वैसा ही वाणी से कथन करना और मन में धारण करना। दूसरे पुरुष में अपने बोध के अनुसार ज्ञान कराने में कही हुई वाणी यदि धोखा देने वाली भ्रान्ति कराने वाली अथवा ज्ञान कराने में असमर्थ न हो और सब प्राणियों के उपकार के लिए प्रवृत हुई हो, और जिससे किसी प्राणी का नाश, पीड़ा अथवा हानि न हो, वह सत्य है। यदि इस प्रकार भी कही हुई वाणी प्राणियों का नाश करने वाली हो तो वह सत्य नहीं है बल्कि इस पुण्याभास पुण्य के प्रतिरूप पाप से महान दुःख को प्राप्त होगा। इसी के द्वारा प्राणिमात्र का भला होता है, इसलिए सत्य-कथन अहिंसा की निर्मलता के लिए और इसी प्रकार अस्तेय आदि जो हैं वे भी अहिंसा की निर्मलता के लिए अन्य सब प्रकार के ब्रताचरण अहिंसा धर्म को ही परिपुष्ट करते है। यह अहिंसा किसी जाती. किसी देश और किसी काल व समय युक्त न होकर सार्वभौमिक अहिंसा महाब्रत कहलाती है यथा भगवन पतञ्जलि के शब्दों में :-
२. सत्य :-
सत्य की परिभाषा ऊपर अहिंसा की पुष्टि में बतला चुके है अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा प्रयुक्त की हुई वह वाणी जिसमें किसी को धोखा न दिया जाय सत्य कहलाती है।
३. अस्तेय
४. ब्रह्मचर्य
५. अपरिग्रह
नियम क्या है
यमों के बाद नियमों का ही विषय आता है।
शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमाः।
कह करके भगवन पतञ्जलि जी ने नियमों का वर्णन किया उनमें से पहले शौच है।
१. शौच :-
२. सन्तोष :-
३. तप
४. स्वाध्याय
५. ईश्वर प्रणिधान
६. ईश्वर प्रणिधानाद्वा
७. भक्ति परानुरक्तिरीश्वरे
आसन क्या है
आसन का शाब्दिक अर्थ है- संस्कृत शब्दकोष के अनुसार आसनम् (नपुं.)[आस्+ल्युट]1.बैठना,2.बैठने का आधार, 3.बैठने की विशेष प्रक्रिया 4.बैठ जाना इत्यादि। यम,नियम,आसन,प्राणायाम,प्रत्याहार,धारणा ध्यान समाधि]में इस क्रिया का स्थान तृतीय है जबकि गोरक्षनाथादि द्वारा प्रवर्तित षडंगयोग (छः अंगों वाला योग) में आसन का स्थान प्रथम है। चित्त की स्थिरता, शरीर एवं उसके अंगों की दृढ़ता और कायिक सुख के लिए इस क्रिया का विधान मिलता है। विभिन्न ग्रन्थों में आसन के लक्षण ये दिए गए हैं- उच्च स्वास्थ्य की प्राप्ति, शरीर के अंगों की दृढ़ता, प्राणायामादि उत्तरवर्ती साधनक्रमों में सहायता, चित्तस्थिरता, शारीरिक एवं मानसिक सुख दायी आदि। पंतजलि ने मनकी स्थिरता और सुख को लक्षणों के रूप में माना है। प्रयत्नशैथिल्य और परमात्मा में मन लगाने से इसकी सिद्धि बतलाई गई है। इसके सिद्ध होने पर द्वंद्वों का प्रभाव शरीर पर नहीं पड़ता। किन्तु पतंजलि ने आसन के भेदों का उल्लेख नहीं किया। उनके व्याख्याताओं ने अनेक भेदों का उल्लेख (जैसे-पद्मासन, भद्रासन आदि) किया है। इन आसनों का वर्णन लगभग सभी भारतीय साधनात्मक साहित्य में मिलता है।
पतञ्जलि के योगसूत्र के अनुसार
स्थिरसुखमासनम्
(अर्थ : सुखपूर्वक स्थिरता से बैठने का नाम आसन है। या, जो स्थिर भी हो और सुखदायक अर्थात आरामदायक भी हो, वह आसन है। )
इस प्रकार हम निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि आसन वह जो आसानी से किए जा सकें तथा हमारे जीवन शैली में विशेष लाभदायक प्रभाव डाले।
जीवन तत्व साधन
योग योगेश्वर महाप्रभु श्री राम लाल जी महाराज द्वारा आविष्कृत "जीवन तत्व साधन " नौ आसनों का समुच्चय है , जो की सभी 84 आसनों का सार है ये आसन बहुत ही सरल हैं। अतः बालक से लेकर बृद्ध तक सभी लोग इन आसनों को कर सकते हैं। इन 9 आसनों को नियमानुसार तथा विधिपूर्वक करने से सब प्रकार के रोग हट जाते हैं। इन आसनों को करने से मन की एकाग्रता बढ़ती है। जिससे ध्यानाभ्यास में सहायता मिलती है.
१. सर्वोत्तान
एक मिनट में केवल तीन बार
इसमें मनुष्य को लेट कर अपने हाथों की अंगुलियां अपने हाथों में डालकर तथा उल्टा करके सिर के पिछली तरफ से जाकर एवं पैरों को लम्बे पसार कर जितना भी अधिक से अधिक तनाव हम दे सकते हैं , वह देना चाहिए। एक बार ऐसा करके शरीर को ढीला छोड़ देना चाहिए। फिर दूसरी बार करना चाहिए फिर शरीर को कुछ ढीला छोड़कर तीसरी बार करना चाहिए। जिससे शरीर का हर एक स्नायु इस तनाव को पाकर यथार्थ गति को प्राप्त हो जाये।
२. स्कन्ध चालन
समय - पन्द्रह मिनट
इस क्रिया को करने के लिये मनुष्य को सावधान होकर बैठ जाना चाहिए अपने दाहिने कन्धे को धीरे से नीचे की और झुका दीजिये फिर धीरे धीरे दाहिने कन्धे को आगे की ओर झुकाओ और झुके हुए कन्धे को ऊपर धीरे धीरे ले जाओ। ऊपर की ओर ले जा करके उस को पीछे की ओर ले जाओ। ज्यों -ज्यों दाहिने कन्धे को आगे की ओर से नीचे लाओगे। ठीक त्योँ -त्योँ बायां पिछली तरफ से ऊपर हो जायेगा। इसी तरह दोनों कन्धों को साईकिल के पैडल की तरह गोल गोल घुमाते रहिये । इसके करने दोनों फेफड़े ठीक काम करने लगते हैं. यदि किसी का यकृत बढ़ गया है तो वह स्कन्ध चालन से अवश्य ही यथार्थ स्थिति में आ जायेगा।
३. पग चालन
समय -पांच मिनट
यह क्रिया करते हुए सीधे लेट जाना चाहिए और लेट कर अपने पैर को पैर के ऊपर रख कर साधारण गति से हिलाना चाहिए। हिलने का क्रम यह होगा कि यदि हमने अपना अपना दायाँ पैर बायें पैर के टखने पर रखा है तो दायें पैर की एड़ी को बराबर जमींन पर लगाते रहें और बायें पैर के अँगूठे को बराबर जमींन में लगाने का प्रयत्न करते रहें। इसी प्रकार यदि बायां पैर दायें पैर के टखने पर रखा है तो इस विधि से हिलाओ की बायें पैर की एड़ी को जमींन पर लगातें रहें और दायें पैर का अँगूठा जमींन पर लगता रहे। यह क्रिया बहुत साधारण है किन्तु छोटी और बड़ी दोनों आँतों के लिए परम लाभदायक है। इसके करने से छोटी और बड़ी आँतें यथार्थ गति से अपना काम करने लगती हैं।
४. नाभि चालन
समय -पन्द्रह मिनट
इस क्रिया का यथार्थ रूप यह है कि जिस प्रकार से एक मगरमच्छ किसी जीव का भक्षण करके बाहर बालुका में आकर अपने पेट को इधर उधर हिलाया करता है। इस क्रिया को करते हुए मनुष्य को चाहिये कि दायें से बायें से दाहिनी ओर करवट बदलने की तरह से शरीर को पलटता रहे। किन्तु शरीर वकायदा एक ही जग़ह पर कायम रहना चाहिए। इस क्रिया का नाम नाभि चालन है। इस क्रिया को करने से बहुत भूख लगती है मंदाग्नि की निवृति हो जाती है। जिनको पेट में हवा बनती है वह बनना बंद हो जाती है। यह क्रिया पेट के सभी रोगों के लिए लाभदायक है।
५. जानु प्रसार
दो मिनट में तीन-तीन बार
इस क्रिया को नाभि चालन करने के बाद अवश्य कर लेना चाहिए। नाभि चालन के बाद साधारण भाव से लेते रहना चाहिए और दाहिने पैर को मोड़कर बायें जानु के पास दाहिने पैर के पंजे को सटा देना चाहिए और धीरे -धीरे अपने दाहिने पैर के जानु को बहार की ओर जमींन पर लगा देना चाहिए और धीरे -धीरे ऊपर की और उठा चाहिए। इस प्रकार यह क्रिया तीन बार दाहिने पैर से और तीन बार बायें पैर से करनी चाहिए अर्थात दाएं पैर से करने के बाद बायें पैर के पंजे को दाहिने पैर की तरह ही दायें पैर के जानू के पास सटाकर बायें पैर के घुटने को तनाव के साथ शनैः शनैः जमींन पर लगाना चाहिए और धीरे -धीरे छोड़ देना चाहिए। इस क्रिया के करने से जंघाओं और पेट व पूरा स्नायु मंडल यथार्थ स्थिति में आ जाता है।
६. बाल मचलन
समय - एक मिनट
इस क्रिया को करते हुए सीधे लेट कर अपने दाहिने -बायें पैर को तथा दायें -बायें हाथ को इस ढंग से जल्दी -जल्दी चलाना चाहिए जिस प्रकार बच्चे अपनी माता से रूठ कर हाथ पैर चलाया करते हैं। अर्थात लेट कर दायां पैर उपर की ओर चला जायेगा। इस प्रकार दोनों हाथों और पैरों को क्रमशः जल्दी -जल्दी चलाना चाहिए किन्तु सिर यथार्थ रूप में जमा रहना चाहिए। इस क्रिया का नाम बाल मचलन है। यह केवल मात्र बच्चों के मचलन की नक़ल है। इसके करने से शरीर में एक स्वाभाविक आह्लाद पैदा होता है।
७. बाल ध्यान
इस क्रिया में अपने शरीर को स्थिर भाव से ढीला छोड़ दीजिये और शान्त भाव से लेटे रह कर एक सूंदर चंचल बच्चे का ध्यान कीजिये जिस की आयु कल्पना से २ या ३ साल की हो। यह बच्चा किसी अच्छे रमणीक उद्यान में खेल रहा हो। ध्यान करने वाला साधक कल्पना से स्वयं भी इस बच्चे के साथ खेल रहा है। इस क्रिया के करने से कुछ ही दिनों में यह बच्चा दिखने लगेगा और साधक भी अपने आप को बच्चा महसूस करेगा। यह क्रिया जीवन तत्व साधन की प्राणभूत है। इसके करने से स्वाभाविक आह्लाद पैदा होता है उस के फलस्वरूप सभी रोगों की निवृति स्वतः ही हो जाती है।
८. नाड़ी सञ्चालन
समय - पन्द्रह मिनट
नाड़ी संचालन करने के लिए सीधे बैठ जाइये। सीधे बैठ कर अपने पैरों को जितना हो सके अधिक से अधिक फैलाओ। इस तरह फ़ैलाने पर घुटने के नीचे का भाग और पैरों की पिंडली बिल्कुल जमींन से सटी रहनी चाहिए। दोनों पैरों के बीच का व्यवधान कम से कम सात बालिस्त का होना चाहिए। ऐसा पैर फ़ैलाने के बाद थोड़ा शरीर को आगे की ओर झुकाकर दाहिने हाथ की अँगुलियों बायें पैर के अंगूठे को छूओ और बायें हाथ को एकदम पीछे ले जाओ। उसी प्रकार फिर दाएं हाथ घुमाकर पीछे ले जाओ चक्राकार घूमाते रहो। इस क्रिया का नाम नाड़ी सञ्चालन है। उसके करने से गृहणी नाड़ी अपनी यथार्थ स्थिति में रहती है, मंदग्नि की निवृति होती है शरीर में पूर्ण रूपेण रक्त रस का संचार होता है। यह क्रिया भी अन्य क्रियाओं की भांति यौगिक व्यायामों में परम लाभदायक है।
९. उत्क्षेपण
एक मिनट
इसमें खड़े होकर के अपने हाथों और पैरों को क्रमशः झटक देना चाहिए। इससे शरीर में एक प्रकार की नई चेतना सी आ जाती है और साधक सचेत होकर यथार्थ स्थिति में आकर अन्य कार्यों के लिए तैयार हो जाता है।
प्राणायाम क्या है
प्राणायाम योग के आठ अंगों में से एक है। अष्टांग योग में आठ प्रक्रियाएँ होती हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, तथा समाधि । प्राणायाम = प्राण + आयाम । इसका का शाब्दिक अर्थ है - 'प्राण (श्वसन) को लम्बा करना' या 'प्राण (जीवनीशक्ति) को लम्बा करना'। (प्राणायाम का अर्थ 'स्वास को नियंत्रित करना' या कम करना नहीं है।) प्राण या श्वास का आयाम या विस्तार ही प्राणायाम कहलाता है। यह प्राण -शक्ति का प्रवाह कर व्यक्ति को जीवन शक्ति प्रदान करता है।हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है-
चले वाते चलं चित्तं निश्चले निश्चलं भवेत्
योगी स्थाणुत्वमाप्नोति ततो वायुं निरोधयेत्॥२॥
(अर्थात प्राणों के चलायमान होने पर चित्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणों के निश्चल होने पर मन भी स्वत: निश्चल हो जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है। अतः योगी को श्वांसों का नियंत्रण करना चाहिये।
यह भी कहा गया है-
यावद्वायुः स्थितो देहे तावज्जीवनमुच्यते।
मरणं तस्य निष्क्रान्तिः ततो वायुं निरोधयेत् ॥
( जब तक शरीर में वायु है तब तक जीवन है। वायु का निष्क्रमण (निकलना) ही मरण है। अतः वायु का निरोध करना चाहिये।)
प्रत्याहार क्या है
पतंजलि के अष्टांग योग के सन्दर्भ में प्रत्याहार का अलग अर्थ है। इन्द्रियों को अंतर्मुखी करना महर्षि पतंजलि के अनुसार जो इन्द्रियां चित्त को चंचल कर रही हैं, उन इन्द्रियों का विषयों से हट कर एकाग्र हुए चित्त के स्वरूप का अनुकरण करना प्रत्याहार है। प्रत्याहार से इन्द्रियां वश में रहती हैं और उन पर पूर्ण विजय प्राप्त हो जाती है। अतः चित्त के निरुद्ध हो जाने पर इन्द्रियां भी उसी प्रकार निरुद्ध हो जाती हैं, जिस प्रकार रानी मधुमक्खी के एक स्थान पर रुक जाने पर अन्य मधुमक्खियां भी उसी स्थान पर रुक जाती हैं।यहाँ प्रत्याहार को पाणिनीय व्याकरण के सन्दर्भ में दिया गया है।
प्रत्याहार का अर्थ होता है – 'संक्षिप्त कथन'। व्याकरण में प्रत्याहार विभिन्न वर्ण-समूह को अभीप्सित रूप से संक्षेप में ग्रहण करने की एक पद्धति है। जैसे, 'अण्' से अ इ उ और 'अच्' से समग्र स्वर वर्ण— अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ओ और औ, इत्यादि। अष्टाध्यायी के प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के 71वें सूत्र ‘आदिरन्त्येन सहेता’(1-1-71) सूत्र द्वारा प्रत्याहार बनाने की विधि का पाणिनि ने निर्देश किया है।
आदिरन्त्येन सहेता (1-1-71) : (आदिः) आदि वर्ण (अन्त्येन इता) अन्तिम इत् वर्ण (सह) के साथ मिलकर प्रत्याहार बनाता है जो आदि वर्ण एवं इत्संज्ञक अन्तिम वर्ण के पूर्व आए हुए वर्णों का समष्टि रूप में (collectively) बोध कराता है।
उदाहरण: अच् = प्रथम प्रत्याहार सूत्र ‘अइउण्’ के आदि वर्ण ‘अ’ को चतुर्थ सूत्र ‘ऐऔच्’ के अन्तिम वर्ण ‘च्’ से योग कराने पर अच् प्रत्याहार बनता है। यह अच् प्रत्याहार अपने आदि अक्षर ‘अ’ से लेकर इत्संज्ञक च् के पूर्व आने वाले औ पर्यन्त सभी अक्षरों का बोध कराता है। अतः,
अच् = अ इ उ ऋ ऌ ए ऐ ओ औ।
इसी तरह हल् प्रत्याहार की सिद्धि 5वें सूत्र हयवरट् के आदि अक्षर ‘ह’ को अन्तिम 14वें सूत्र हल् के अन्तिम अक्षर ल् के साथ मिलाने (अनुबन्ध) से होती है। फलतः,
हल् = ह य व र, ल, ञ म ङ ण न, झ भ, घ ढ ध, ज ब ग ड द, ख फ छ ठ थ च ट त, क प, श ष स, ह
उपर्युक्त सभी 14 सूत्रों में अन्तिम वर्ण की इत् संज्ञा पाणिनि ने की है। इत् - इण् धातु से गमनार्थ मे निष्पन्न पद है। इत् संज्ञक वर्णों का कार्य अनुबन्ध बनाकर अन्त मे निकल जाना है। अतः, इत् संज्ञा होने से इन अन्तिम वर्णों का उपयोग प्रत्याहार बनाने के लिए केवल अनुबन्ध (Bonding) हेतु किया जाता है, लेकिन व्याकरणीय प्रक्रिया मे इनकी गणना नही की जाती है अर्थात् इनका प्रयोग नही होता है। किन वर्णों की इत् संज्ञा होती है, इसका निर्देश पाणिनि ने निम्नलिखित सूत्रों द्वारा किया है: