Yoga

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What is Yoga?

The word Yoga is so widespread and important that all theorists have applied it to their heart. Bhakti Yoga, Jnana Yoga, Karma Yoga, Raja Yoga, Laya Yoga, Hatha Yoga, Shunya Yoga, etc. all these words are indicative of its prevalence. There will not be any creature born in this world, who does not have the true curiosity of yoga, but according to the rule of "Munday, Munday Matribharinna", every person used it according to his / her will. Those who are heart oriented and are engaged to achieve the goal in the form of Archana, Vandana etc. of God, they have given it to Bhakti Yoga, and those who are knowledge-oriented people, while meditating on the Mahavakyas, strive for self-realization according to Vedanta principles. They have adopted Jnana Yoga, similarly, those who want to achieve their goal by doing deeds with devoid of wisdom and getting rid of the bondage, they have adopted it under the name of Karmayoga.Apart from this, seeing the wide impact and greatness of yoga, some arrogant people also adopted this word, worshiping small tamas, vampire, etc., Rajas powers, and found the Siddhis and performed their spiritual worship by putting the innocent spear beings of the world into a miracle. And proved himself to be a yogi. Apart from this, those who have learned some of the tools of yoga from every place, they established yoga ashrams and only by doing netadhuti, etc., sattkarma and asana bandhas postures, became the ultimate goal of those people. In the same way, without the practice of Ashtanga yoga, some people took advantage of the broad word of yoga by applying samadhis of Bhumi-garbha, Jal-garbha etc. It all happened due to his negligence by not understanding or even realizing the true meaning of yoga.

In fact, if you think properly, then the verb which combines the meaning of the word yoga, according to Paninian grammar, is the use of the word Sandanath from the use of metal, which means to mix. Yoga means samadhi from Yuz Samadhau. Yogacharya Bhagwan Shri Patanjali gave the expression of the word Yoga by saying "Yogashatna Briti Nirodha". In our classical definition, the meaning of the word 'nirodha' means 'nirodha' from samadhi and similarly, the meaning of the word 'yoga', yoga, samadhi, etc., proves to be samadhi.

समाधि शब्द का अर्थ उपनिषदों में समाधि समतावस्था, जीवात्म: परमात्मन: से जीवात्मा व परमात्मा की समतावस्था का नाम ही है। किन्तु योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः इस सूत्र में केवल मात्र चित बृति निरोधः का योग कहा है न कि सर्व चित ब्रिटी निरोधः का योग कहा है, क्यूंकि इस सूत्र में सर्व शब्द का ग्रहण नहीं है। इसलिए योग की संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात दोनों अवस्थाओं का नाम योग शब्द वाच्य है। इसी कारण से वितर्क विचारानान्दास्मितानुगमात सम्प्रज्ञातः कह करके सम्प्रज्ञातः योग, व विराम प्रत्ययाभ्यास पूर्वःसंस्कारशेषोअन्यः कह करके असंप्रज्ञात योग का कथन किया है। संप्रज्ञात समाधि को दूसरे शब्दों में एकाग्रावस्था व निरोधावस्था कहना चाहिए। सारे संसार के प्राणियों के चित पांच अवस्थाओं में विभक्त रहा करते हैं, उनमें से -

जिनमें तमोगुण प्रधान रहता है। तथा रज और सत्व , गौण हो जाया करते हैं, इस अवस्था के चित वालों की प्रबृति काम, क्रोध, लोभ. मोह आदि से आवृत रहा करती है और वे आलस्य तन्द्रा में घिरे रहते हैं किसी भी प्रकार उनकी उदर पूर्ति होती रहे, इसके अतिरिक्त किसी के हिताहित लोक-परलोक से इनका कोई सम्बन्ध नहीं होता।

जिनमें रजोगुण प्रधान रहता है। तमोगुण व सतोगुण गौण रहने के कारण इनके मन से चंचलता, दुःख -शोक , चिंतायें बनी रहती हैं लौकिक साधना ही उनका परम लक्ष्य रहता है सांसारिक कार्य धन्धे (विजनेस ) व्यापार के अतिरिक्त परलोक आदि में इनकी आस्था नहीं होती।

जिनमे दतोगुण प्रधान रहता है रजोगुण और तमोगुण गौण होता है। इनके मन में पूर्ण प्रसन्नता, क्षमा, दया, परोपकार की भावना और साधनों में संलग्नता, ज्ञान, धर्म और वैराग्य में पूरी-पूरी अभिरुचि रहती है इनका मन थोड़ा-थोड़ा एकाग्रता की ओर चलता है तथा शान्त रहता है। ये लोग स्वाध्याय, संकीर्तन, उपासनायें आदि करते रहते हैं किन्तु एकाग्रता के बिना इस भूमिका के प्राणी भी योग श्रेणी के नहीं मने जाते।

जिनमे सतोगुण प्रधान रहता है रजोगुण, तमोगुण वृति मात्र में शेष रहते है. इनका मनद्रष्टानुश्रविक विषय वित्रिशंस्य बाशिकारसंज्ञावैराग्यम हो करके अपर वैराग्य को प्राप्त होता है, वस्तुतः विचार क्र देखा जाये तो प्रभु की सृष्टि के बड़े -बड़े अद्भुत कार्य मन की एकग्रता से ही सम्पन्न होते हैं।

इसमें बाहर के गुणों का परिणाम बंद होकर चित सत्व में निरोध परिणाम संस्कार मात्र शेष रह जाता है और द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। ऊपर वर्णन की हुई पांचों प्रकार की अवस्थाओं में केवल मात्र एकाग्रावस्था व निरोधावस्था को ही योग श्रेणी गया है। संसार का कोई भी प्राणी किसी प्रकार की साधनायें करता रहे, जब तक मन में एकग्रता का उदय नहीं होता तब तक उसका योग में प्रवेश नहीं मन जा सकता। भगवन पतञ्जलि ने –

यमनियमासन प्राणायाम प्रत्याहार I

धरनाध्यांनसमाधायोऽष्टावज्ञानि II

कह करके अष्टांग योग का वर्णन किया। अंग अंगी से अलग नहीं होते इस वॉचर से अष्टांग योग के किसी भी एक अंग का पलान करने वाला भी योग का विद्यार्थी तो है ही। उनमे से यम, नियम,आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार, ये पांच अंग धारण, ध्यान, समाधि की अपेक्षा बहिरंग हैं,और धरना ध्यान सम्प्रज्ञात समाधि, असम्प्रज्ञात की अपेक्षा बहिरंग है। भगवन पतञ्जलिजी के शब्दों में किसी एक में चित को बांधना धरना कहलाती है, देशबन्धश्चित्तस्य धारणा धारणा। से ही सम्प्रज्ञात योग का श्री गणेश होता है धारणा सिद्ध हो जाने पर मन के अन्दर योग प्रवेश की योग्यता हो जाती है, धारण की सिद्धि से प्राप्त हुई योग्यता वाला मन किसकी बृति अन्तर्मुखी हो चुकी है। सम्प्रज्ञातयोग का अधिकारी बनता है। सम्प्रज्ञात योग का अभ्यासी योग अपने प्रथम अभ्यास में वितर्कानुगम योग का अभ्यास करता है , जिसमे वह आकाश, वायु,अग्नि ,बल,पृथ्वी इन पांच महाभूतों का तथा शब्द, स्पर्श, रूप, रस ,गंध इनके गुणों का प्रत्यक्ष करता है। इस वितर्कानुगम योग में पंच-भूत और पंच-भूतों से होने वाले सब विस्तार का और इनके सब विषयों को पूर्ण प्रत्यक्ष करता है। साधक अपने अपने अभ्यास में पृथ्वी तत्व में पहाड़, सुरभ्य वन, उपवन। और नाना प्रकार की दिव्य सुगंधों को अनुभव करता है तथा जल तत्व में महान नाना प्रकार के समुद्र और दिव्य रसो का अनुभव करता है। अग्नि तत्व में अनेक विधि ज्वालाओं और महान दिव्य रूपों को अनुभव करता है, वायु तत्व में दिव्या स्पर्शों का अनुभव करता है। और आकाश तत्व में शुन्य आकाश और आकाश से उत्पन्न होने वाले नाना प्रकार के शब्दों को सुनता है। इस वितर्कानुगत योग में सर्वितर्क और निर्वितर्क दो अलग -अलग भेद हैं, उसमे सवितर्क समाधिः :-तत्र शब्दार्थ ज्ञान विकल्पै: संकीर्णा सवितर्का समापतिः अर्थात वितर्कानुगत में जिस समाधि में शब्द अर्थ और उसका ज्ञान मिला हुआ सा होने पर बराबर अलग-अलग भाषित होते रहें वह सवितर्क समाधि कहलाती है। इसका अभ्यास करते करते चित ध्येयाकार हो जाय , शब्द अर्थ ज्ञान न रहे तब वह निर्वितर्क समाधी कहलाती है इस विषय को इस तरह समझ लेना चाहिए जैसे साधक के ध्यान में एक गाय है गाय एक शब्द है और लम्बे गले वाली, २ सींगों वाली, सफ़ेद रंग चार पैरों वाली गाय एक पशु है और उस गाय के मन में ज्ञान होना कि वह एक गाय है, यही ज्ञान है, यह तीनों शब्द अर्थ और ज्ञान एक विषयक होते हुए भी अलग -अलग समझ में आते रहें। ऐसी स्थिति का नाम सवितर्क समाधि है। जिसमें साधक का मन ध्येयाकार बन जाय शब्द अर्थ और ज्ञान अलग- अलग अनुभव में न आकर अर्थ मात्रा भाषित होता रहे वह निर्वितर्क समाधी है।

स्मृति परिशुद्धौ स्वरूपशून्येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का।